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कसक

कसक

"वह बात नहीं है माँ— कभी इतना लंबा सफर अकेले किया नहीं है न, तो घबराहट सी हो रही है। उनका क्या है— बैठे-बैठे फरमान जारी कर दिया कि बस पकड़ के चली आओ। अब जिसे जाना है, देखना तो उसे है... नहीं माँ, सुल्तानपुर से लखनऊ तक का ठीक है— ढाई-तीन घंटे की बात रहती है लेकिन दिल्ली? कहते तो हैं कि सात-आठ घंटे में पहुंच जायेंगे लेकिन लंबे सफर में भला कब इस बात की गारंटी रहती है। कब, कहां जाम में फंस जायें, कब रास्ते में कोई बात हो जाये... अरे क्या माँ, शुभ-अशुभ... न बोलने वालों के साथ परेशानियां नहीं आतीं क्या? अकेले जाऊंगी तो यह सब ख्याल तो आयेंगे ही। नहीं... नहीं माँ, कहां छुट्टी मिल पा रही रवि को। वो तो कह रहे थे कि फ्लाईट से चली आओ, पैसे की चिंता नहीं है— लेकिन हम कहां हवाई जहाज पे बैठेंगे। रवि साथ होते तो बात अलग थी— अकेले तो न बाबा न। अनाड़ियों की तरह चकराते फिरेंगे... उससे तो फिर बस ही ठीक है।" वह फोन कान से लगाये अपनी ही धुन में बोले चली जा रही थी और सूटकेस को हैंडल से खींचते प्लेटफार्म से लगी बसों पर लगी स्लेट पढ़ती जा रही थी, जिन पर उनकी मंजिलें लिखी थीं।
लखनऊ के आलमबाग बस अड्डे का दृश्य था... पीछे रिसेप्शन और वेटिंग हाॅल था और इस तरफ़ उससे लगा हुआ एसी बसों का प्लेटफार्म था— जबकि सामने की तरफ़ जनरल बसों का ठिकाना था। लोगों का मिला-जुला शोर गूंज रहा था और काफी सारे लोग अपनी-अपनी बसों के चक्कर में इधर-उधर हो रहे थे। वह ख़ुद भी अपने लिये बस देख रही थी। साथ ही फोन पर माँ से बतियाना भी जारी था।

"हां माँ... कह तो रहे थे यह कि ट्रेन देख लो लेकिन ट्रेन में जल्दी रिजर्वेशन कहां मिलता है। फिर हमको ट्रेन से ज्यादा बस ही ठीक लगती है— कम से कम एक सीट की गारंटी तो रहती है। ट्रेन में तो सब घुसे रहते हैं, वेटिंग वाले भी, डेली पैसेंजर भी। हर समय धड़का लगा रहता है सीट पर सिमटते जाने का... वो बात नहीं है माँ, सेफ तो है... बस अकेले किये नहीं न इतना लंबा सफर, तो थोड़ी घबराहट हो रही है। आप लोग भी तो कभी आदत नहीं डलाये अकेले चलने की... ए भय्या सुनो, यह दिल्ली जा रही है न?" चलते-चलते उसने एक बस के आगे खड़े कंडक्टर से पूछा।
"हां, ऑनलाइन बुकिंग है?" कंडक्टर ने उसे मुड़ते हुए देखा था।

"न भय्या— आप ही बना देना। हमको नहीं आता ऑनलाइन-वानलाईन... एक मिनट रुको माँ।"

"आगे से पांच लाईन छोड़ के पीछे किसी भी सीट पर बैठ जाइये।"

"ठीक है... हां माँ, बस तो मिल गई है अब अंदर जा रहे हैं। रखते हैं अभी फोन। बाद में बात करेंगे।" उसने फोन कट करके कंधे से लटकते हैंडबैग में रखा और दोनों हाथों से सूटकेस पकड़ते ऊपर चढ़ाने लगी।

"इधर ही रख दीजिये मैडम— यह ऊपर आ नहीं पायेगा, फिर आप रास्ते में टिकायेंगी तो लोगों को निकलने बैठने में मुश्किल होगी।" ड्राईवर ने उसका ध्यान अपने पीछे की खाली जगह की तरफ़ दिलाया।
"और कोई और लेके चला गया तो?" उसने एक हाथ से माथे पर उभर आया पसीना पोंछते हुए कहा।

"अब तक तो ऐसा कभी हुआ नहीं— भरोसा रखिये, आज भी नहीं होगा। सामान ज्यादा हो तो लोग डिक्की बाॅक्स में या छत पर रखते ही हैं, तो इसी भरोसे पे रखते हैं।" ड्राईवर दांत निकालता हुआ बोला।

"ठीक है— आप की जिम्मेदारी पर रख रही हूं।" उसने सूटकेस सरकाते ड्राईवर के पीछे वाली जगह पर पहुंचा दिया और अंदर आ गई।

आधी बस तो भर ही चुकी थी— पर लोग जहां-तहां बैठे थे। आगे की पांच लाईन वाले आधे यात्री ही अभी पहुंचे थे। पीछे सातवीं रो में एक पूरी सीट खाली देख वह वहीं बैठ गई और बैग से पानी की बोतल निकाल के एक लंबे घूंट से हलक तर कर लेने के बाद वापस फोन निकाल कर देखने लगी।
तभी कोई आकर पास वाली सीट पर बैठ गया।

उसके शरीर से छूटती पसीने की महक ने पल्लवी के नथुनों को छुआ तो उसे झटका सा लगा। यह मर्दाना महक थी— उसे समझ में नहीं आया कि पीछे और भी खाली सीटें थीं लेकिन उसे यहीं क्यों बैठना था। अकेली महिला देख के लंगोट के ढीले मर्द फौरन उस जगह को भरने की कोशिश करते हैं। दिल तो किया कि कुछ सख्त शब्द बोल जाये, लेकिन फिर सोचा कि हक़ क्या था उसका। अभी उसके टोकने पर शायद यह आदमी शर्म खा कर उठ जाये, लेकिन बाकी सीटें भरने पर कोई और आकर बैठ जायेगा। अब ज़रूरी तो नहीं कि कोई उसके जैसी अकेली महिला ही आ कर उसकी सहयात्री बने।
बस अच्छा नहीं लगा तो चेहरा मोड़ कर खिड़की से बाहर देखने लगी।

पड़ोस में बैठे मर्द के शरीर से फूटती महक उसे कुरेद रही थी, उसकी सुप्त पड़ी स्मृतियों में हलचल पैदा कर रही थी। इतने नज़दीक से उसने जीवन में गिने-चुने मर्दों की महक सूंघी थी, जिनमें पति को छोड़ बाकी सब तो घर के ही थे— सिवा एक के, जो बाहरी था... जो कभी उसके लिये शायद सबसे खास था। उसकी तरफ़ ध्यान जाते ही ज़हन को ज़ोर का झटका लगा और वह पलट कर उसे देखने लगी।

वही तो था... वही कसरती बदन, वही आकर्षक चेहरा, वही बदन से छूटती महक, अंदाज़ में वही लापरवाही... दिल एकदम धक् से रह गया।

"आकाश।" उसके होंठ फड़फड़ाये तो दबी सी आवाज़ निकली।

"हम्म— दिल्ली जा रहा हूं, शायद तुम भी वहीं जा रही हो... तो सोचा कि तुम्हारे साथ चल लेते हैं। वैसे भी कहां नसीब तुम्हारे साथ चलना... कुछ दूर ऐसे ही सही।" बोला तो वह उसी से था, लेकिन देखा एक बार नहीं उसकी तरफ़— बस ऐसे बोल गया जैसे हवा से बात कर रहा हो।

"कैसे हो?" पल्लवी के अंदाज़ में अब भी वही लगाव था।
"ठीक हूं— फिट एंड फाईन। तुम भी ठीक ही होगी, सेहत बता रही है। इसलिये मैं नहीं पूछूंगा... और मैं कुछ भी नहीं पूछूंगा।" उसने फिर सामने देखते ही कहा था— जैसे उससे निगाहें मिलाना भी ठीक न समझता हो।

"अभी भी वैसे ही बुरे हो... वैसे ही मग़रूर, अकड़ू... दूसरे का सब जानना है, लेकिन पूछना नहीं है, दूसरा ख़ुद से बता दे।" वह होंठों ही होंठों में बुदबुदाई लेकिन इतनी आवाज़ तो फिर भी थी कि वह सुन ले— लेकिन सुन कर कोई प्रतिक्रिया उसने फिर भी नहीं दी, वैसे ही भावहीन चेहरा लिये लापरवाह सा बैठा सामने देखता रहा।

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Written By Ashfaq Ahmad

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